बिहार के बेगूसराय में सीपीआई के उम्मीदवार कन्हैया कुमार के समर्थन में एक सभा को संबोधित करते हुए मशहूर लेखक-गीतकार और राज्यसभा के पूर्व सांसद जावेद अख़्तर ने 39 मिनट का भाषण दिया.
शुरुआती 30 मिनटों में उन्होंने बीजेपी, आरएसएस, मुस्लिम लीग, नरेंद्र मोदी वग़ैरह के बारे में बहुत कुछ कहा. मैं उन पर कुछ नहीं कहना चाहता. मैं बात करना चाहता हूं उनके भाषण के आख़िरी नौ मिनटों पर.
जावेद अख़्तर के मुताबिक़, कोई उन्हें कह रहा था कि मुसलमानों को एक होकर वोट देना चाहिए. उनको ये बात सही नहीं लगती क्योंकि धर्म के आधार पर वोट नहीं करना चाहिए. भला ऐसा कौन होगा जो जावेद अख़्तर की इस बात से इनकार करेगा.
उसके बाद वो बेगूसराय से एक दूसरे उम्मीदवार डॉक्टर तनवीर हसन का लगभग मज़ाक़ उड़ाते हुए और उनके पूरे वजूद को नकारते हुए कहते हैं, ”यहां एक और साहब भी इलेक्शन लड़ रहे हैं.”
मैं मानता हूं कि जावेद अख़्तर मुंबई में रहते हैं इसलिए बिहार के किसी एक लोकसभा सीट के किसी उम्मीदवार का नाम याद रखने की उम्मीद उनसे नहीं की जानी चाहिए, ख़ास तौर पर उस उम्मीदवार का नाम जिसको भारत की अधिकतर मीडिया ने भी जानबूझकर या अनजाने में नज़रअंदाज़ कर दिया है.
लेकिन किसी उम्मीदवार का नाम याद नहीं रहना और उसका मज़ाक़ उड़ाना ये दो बिल्कुल अलग बातें हैं. उर्दू का इतना बड़ा शायर, जांनिसार और सफ़िया अख़्तर का लख़्त-ए-जिगर, मजाज़ का भांजा, कैफ़ी का दामाद और शबाना का शौहर लफ़्ज़ों और लहजे के इस फ़र्क़ को तो ज़रूर जानता होगा.
जावेद अख़्तर ने किसी का नाम नहीं लिया लेकिन उनका इशारा साफ़ तौर पर बेगूसराय के मुसलमान वोटरों की तरफ़ था. और इसे इशारा कहना भी सही नहीं क्योंकि अगले ही जुमले में उन्होंने कह दिया, ”अगर आपने कन्हैया को वोट नहीं दिया तो फिर बीजेपी जीतेगी. तो फिर ऐसा कीजिए ना, जाइए सलाम वालैकुम कहिए और कहिए हुज़ूर ये बीजेपी के लिए वोट लेकर आया हूं. तो कम से कम बीजेपी वाले आपका एहसान तो मानेंगे. आप अगर वहां (तनवीर हसन) वोट दे देंगे जो बीजेपी की मदद तो कर देगा लेकिन बीजेपी पर एहसान नहीं होगा. ये तो बड़ी नादानी की बात होगी.”
जावेद अख़्तर ख़ुद को बेशक नास्तिक कहते हैं लेकिन वो ये तो ज़रूर जानते होंगे कि दुनिया भर के करोड़ों मुसलमान जब एक दूसरे से मिलते हैं वो ‘अस्सलाम वालैकुम’ कहते हुए एक दूसरे का अभिवादन करते हैं, जिसका शाब्दिक अर्थ होता है आप पर अल्लाह की सलामती हो.
जावेद अख़्तर एक शायर हैं इसलिए हंसी-मज़ाक उनका हक़ है लेकिन उन्होंने जिस तरह से ‘सलाम वालैकुम’ कहा वो लहजा इस शब्द और उसको बोलने वाले करोड़ों लोगों का मज़ाक़ उड़ाने जैसा था.
अपने भाषण के दौरान जावेद अख़्तर बार-बार ये कहते रहे कि जो लोग (यानी कि अब तो साफ़ हो गया कि उनका मक़सद बेगूसराय के मुसलमान वोटरों से था), तनवीर हसन को वोट देना चाहते हैं उन्हें सीधा गिरिराज सिंह के पास चले जाना चाहिए.
जावेद अख़्तर के लफ़्ज़ों में बेगूसराय से वो जो ‘एक और साहब इलेक्शन लड़ रहे हैं’ वो राष्ट्रीय जनता दल-कांग्रेस-आरएलएसपी-हम-वीआईपी पांच पार्टियों के गठबंधन के उम्मीदवार डॉक्टर तनवीर हसन हैं.
वो बिहार की सबसे बड़ी पार्टी (बिहार विधानसभा चुनाव 2015 में सबसे ज़्यादा 80 सीटें जीतने वाली पार्टी) राष्ट्रीय जनता दल के प्रदेश उपाध्यक्ष हैं और एक वरिष्ठ नेता हैं. 2014 में जब जावेद अख़्तर की मुंबई समेत पूरे उत्तर और पश्चिम भारत में मोदी की लहर थी तब तनवीर हसन ने मोदी के उम्मीदवार भोला सिंह को कड़ी टक्कर दी थी और सिर्फ़ 58 हज़ार वोटों से हारे थे. और बीजेपी के जिस भोला सिंह से तनवीर हसन हारे थे वो पहले उसी सीपीआई के एक बड़े नेता थे.
उसी चुनाव में सीपीआई के उम्मीदवार को सिर्फ़ 1.92 लाख वोट मिले थे. और उस समय सीपीआई और जनता दल यूनाइटेड का गठबंधन था यानी कि क़रीब दो लाख जो वोट मिले थे उसमें जेडीयू की भी हिस्सेदारी थी.
इसलिए आंकड़ों के हिसाब से देखा जाए तो तनवीर हसन का पलड़ा हर हालत में कन्हैया से भारी है लेकिन मेरा मक़सद जावेद अख़्तर को एक लोकसभा की सीट पर पांच साल पहले मिले वोटों के आंकड़ों के जाल में फंसाना नहीं है. न ही मुझे इस बात में कोई ख़ास दिलचस्पी है कि बेगूसराय में इस बार कौन जीतेगा और कौन किसको हरा सकता है या हराएगा. मैं एक पत्रकार हूं और मेरे लिए बेगूसराय भारत की 543 लोकसभा सीटों में से सिर्फ़ एक सीट है.
जावेद अख़्तर ने ख़ुद कहा कि मुंबई के अमीर इलाक़ों तक में बेगूसराय का ज़िक्र हो रहा है और वहां भी लोगों का ध्यान इस सीट पर है.
उन्होंने कहा कि बेगूसराय इसलिए अहम है क्योंकि एक तरफ़ एक ऐसी ताक़त है (उनका इशारा बीजेपी के गिरिराज सिंह से था) जिसके पास मज़बूत संगठन है, पैसा है, मीडिया है और दूसरी तरफ़ सिर्फ़ एक लड़का (कन्हैया कुमार) जिसके साथ आप (वहां बैठे लोग या आम जनता) हैं.
तो जावेद साहब आपने जिस कन्हैया को सिर्फ़ एक लड़का कहकर हमदर्दी बटोरने की कोशिश की वो इतना भी बेचारे नहीं जितना आपने बताने की कोशिश की. वो एक ग़रीब मगर सामाजिक, राजनीतिक और शैक्षिक तौर पर संपन्न हैं.
जेएनयू से पीएचडी की है, वहां के छात्र संघ के अध्यक्ष रहे हैं. उनके चुनावी ख़र्चे के लिए कुछ ही दिनों में 70 लाख रुपए लोगों से जमा हो गए. जिनके समर्थन में ख़ुद जावेद अख़्तर मुंबई से चलकर बेगूसराय आए और जिस पर इस देश की अधिकतर मीडिया मेहरबान है वो भला ‘सिर्फ़ एक लड़का’ कैसे कहा जा सकता है.लेकिन मेरे लिए ये भी कोई बहुत अहम बात नहीं है.
जावेद अख़्तर ने गिरिराज सिंह का हवाला देते हुए कहा कि बेगूसराय में इस बात को तय करना है कि भारत के अल्पसंख्यकों को देश का हिस्सा समझना है या उन्हें पाकिस्तान का वीज़ा देना है. ये बहुत ही अहम सवाल है लेकिन ये सवाल देश के 543 सीटों पर है सिर्फ़ बेगूसराय में नहीं और अगर सारे देश में ये सवाल नहीं तो फिर बेगूसराय में ये सवाल क्यों? लेकिन अगर जावेद साहब के सवाल को जायज़ मान भी लिया जाए तो उनका जवाब सुनकर मुझे ज़्यादा अफ़सोस हुआ.
जावेद अख़्तर ने तनवीर हसन का एक बार फिर मज़ाक़ उड़ाते हुए उन्हें बीच (गिरिराज सिंह और कन्हैया कुमार) में पड़ी ‘कौड़ी’ और ‘पत्ता’ क़रार दिया.
पहली बात तो ये कि न जाने किस आधार पर उन्होंने ये मान लिया कि बेगूसराय में गिरिराज सिंह और कन्हैया कुमार के बीच सीधी लड़ाई है और तनवीर हसन इस दौड़ में हैं ही नहीं.
जावेद अख़्तर जिस उम्मीदवार के हक़ में वोट मांगने आए हैं उनको सबसे आगे बताना उनका न सिर्फ़ हक़ है बल्कि फ़र्ज़ भी है. हालांकि ज़मीनी हालात उनके हक़ और फ़र्ज़ दोनों से अलग हैं फिर भी मैं उनके इस अधिकार को चुनौती नहीं दे सकता.
लेकिन उन्होंने तनवीर हसन के लिए जिस तरह से कौड़ी और पत्ता जैसे लफ़्ज़ों का इस्तेमाल किया यक़ीनन वो जावेद अख़्तर साहब के कद के लोगों को शोभा नहीं देती.
उन्होंने बेगूसराय के मुसलमान वोटरों को इस पत्ते (तनवीर हसन) से होशियार रहने के लिए भी कहा. राष्ट्रीय जनता दल और उसके सहयोगी पार्टियों के बारे में कहा कि तनवीर हसन के जो कमिटेड (कैडर वोट) वोट हैं उनका कमिटमेंट किसी एक पार्टी (राजद) या किसी एक नेता (लालू प्रसाद) से है और ये कमिटमेंट इस देश के कमिटमेंट से ज़्यादा बड़ा नहीं है.
यहां पर जावेद अख़्तर साहब को ये याद दिलाना ज़रूरी है कि उन्होंने जिस एक नेता का ज़िक्र इशारों में किया उनका नाम लालू प्रसाद है. और इस समय ख़ुद जावेद अख़्तर साहब देश के साथ जिस कमिटमेंट की बात कर रहे हैं, लालू प्रसाद पिछले तीस सालों से वो कमिटमेंट निभा रहे हैं.
लालू प्रसाद में हज़ारों ख़ामियां हो सकती हैं और हैं भी, लेकिन जावेद अख़्तर साहब जिस आरएसएस, मोदी और गिरिराज सिंह का ख़ौफ़ दिखा रहे थे उस संघ-बीजेपी-मोदी का हिंदी पट्टी में सबसे प्रखर विरोधी चेहरा भला लालू प्रसाद के अलावा दूसरा कौन हो सकता है. तो फिर इस ख़तरे से लालू की पार्टी का उम्मीदवार क्यों न लड़े, ये लड़ाई सिर्फ़ कन्हैया लड़े, इसकी कोई जायज़ वजह मुझे तो समझ में नहीं आती.
जावेद साहब ने आगे कहा कि तनवीर साहब के बिना खेल में मज़ा नहीं था. उनका कहना था, ”अगर तनवीर साहब उम्मीदवार नहीं होते तो सभी मुसलमान कन्हैया को वोट दे देते लेकिन तनवीर साहब के होने के कारण मुसलमानों के लिए आज़माइश की घड़ी है.”
उन्होंने भाषण के आख़िर में कहा कि ”ये भी हम देखेंगे कि आपको (मुसलमानों) सेक्युलरिज़्म सिर्फ़ दूसरों से चाहिए या ख़ुद भी रखते हैं.”
तनवीर हसन की पूरी शख़्सियत को ख़ारिज करते हुए जावेद अख़्तर ने उन्हें सिर्फ़ और सिर्फ़ एक मुसलमान बता दिया. वो ये भूल गए कि कन्हैया की जितनी उम्र है उससे ज़्यादा लंबा तनवीर हसन का संघर्ष भरा सियासी सफ़र रहा है. एक मुसलमान होने के अलावा तनवीर हसन एक मज़बूत पार्टी और एक मज़बूत गठबंधन के आधिकारिक उम्मीदवार हैं. लेकिन इन सभी चीज़ों को भुलाकर जावेद अख़्तर ने एक ऐसा चश्मा लगाकर देखा जिसमें उन्हें तनवीर हसन सिर्फ़ एक मुसलमान दिखे.
न सिर्फ़ तनवीर हसन बल्कि उन्होंने बेगूसराय के सारे मुसलमान वोटरों को भी मज़हब के चश्मे से देखा.जावेद अख़्तर ने ये कहते हुए उन्हें कठघरे में डाल दिया कि ये उनके लिए आज़माइश की घड़ी है.
जावेद अख़्तर के लिए सेक्युलरिज़्म की पहचान ये है कि मुसलमान एक दूसरे मुसलमान यानी तनवीर हसन को वोट न दे. अगर बेगूसराय का मुसलमान तनवीर हसन को वोट देता है तो वो जावेद अख़्तर की नज़रों में कम्युनल हो जाएगा.
क्या जावेद अख़्तर साहब किसी हिंदू मोहल्ले में कन्हैया के ही समर्थन में जाकर ये कह सकते हैं कि आप गिरिराज सिंह को वोट नहीं देकर कन्हैया को वोट दें और ये हिंदुओं के सेक्युलरिज़्म की परीक्षा है. जावेद अख़्तर साहब सेक्युलरिज़्म का सारा बोझ मुसलमानों के ही कंधे पर क्यों?
अगर कन्हैया गठबंधन का साझा उम्मीदवार होता और तनवीर हसन किसी दूसरी छोटी पार्टी से या निर्दलीय खड़े होते और मुसलमान सिर्फ़ मज़हब के नाम पर तनवीर हसन को वोट देते तो जावेद साहब की बातों में शायद कुछ दम होता. लेकिन यहां तो मामला बिल्कुल उल्टा है.
बेगूसराय के दूसरे सभी धर्म और जाति के लोगों की तरह मुसलमानों को भी अपनी पसंद के उम्मीदवार को वोट देने का हक़ है. लेकिन जावेद अख़्तर साहब का मानना है कि मुसलमान अगर कन्हैया को वोट दे तो सेक्युलरिज़्म की परीक्षा में पास और अगर तनवीर हसन को वोट दे तो वो इस आज़माइश में फ़ेल होगा.
अगर जावेद अख़्तर साहब को इस देश की इतनी ही फ़िक्र है तो देश की बाक़ी 542 सीटों की फ़िक्र क्यों नहीं. अगर कन्हैया जीत भी जाते हैं और बीजीपी की सरकार बन जाती है तो क्या फ़र्क़ पड़ जाएगा? उनके मुताबिक़ देश को जो ख़तरा है वो तो बना रहेगा.
जावेद अख़्तर साहब ने बीजेपी विरोधी सभी पार्टियों पर इस बात के लिए क्यों नहीं दबाव बनाया कि वो बीजेपी विरोधी वोट न बंटने दें. ये सारा बोझ बेगूसराय के मुसलमानों को अकेले उठाने के लिए क्यों कह रहे हैं.
लेकिन अगर केवल वैचारिक और सैद्धांतिक स्तर पर भी देखा जाए तो तनवीर हसन की गिरिराज सिंह पर जीत (अगर हुई तो) ज़्यादा अहमियत रखती है. जिस मुसलमान क़ौम को गिरिराज सिंह पिछले पांच सालों से बात-बात पर पाकिस्तान भेजने की धमकी देते रहे हैं अगर उसी क़ौम का एक व्यक्ति भारतीय संविधान के अंतर्गत कराए जा रहे चुनाव में लोकतांत्रिक तरीक़े से उनको मात देता है तो ये भारतीय लोकतंत्र के लिए कितनी बड़ी बात होगी!
इक़बाल अहमद,
बीबीसी से साभार